कोहिनूर की कहानी

कोहिनूर की कहानी


भारत मे विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा बड़ी मात्रा में लुटे गए आभुषण और वस्तु में एसी भी धरोहर थी जो आज ना सिर्फ बेशकीमती थी बल्कि उस कालखंड में भारत की समृद्धि और संपन्नता का वणॅन सर्वण अक्षरों में किया करतीं थीं।16वी सताब्दि में दक्षिण अफ्रीका और ब्राजिल में हीरे की खदानों का पता चलने से पहले दुनिया भर में भारत की गोलकोंडा खदान से निकले हीरो की धाक थी। लेकिन यहां से निकले ज्यादातर हीरे, या तो लापता हैं या फिर विदेशी संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रही हैं। और इन्हीं हीरो में से एक कोहिनूर हीरा था। सभी प्रकार के हीरो में ये सबसे प्रसीद्ध, पूराना, और यह जगमगाता हीरा अत्यंत ही बेशकीमती था।

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           हम आज आपको इस कोहिनूर हीरे की पूरी कहानी बताएंगे।

  • की कहा से ये निकला?
  • किन-किन राजा-महाराजाओं के पास ये गया?
  • कितने समय तक उनके पास रहां ?
  • किन्होने इसे लुटा ?
  • तो फिर किन्होंने इसे महेंगे स्वरुप में किसीको भेंट दिया ?
  • और कोनसे देश है जो आज भी इस हीरे को अपना होने का दावा करते हैं ?
  • 3000 टन सोना।

Kohinoor diamond
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महाभारत काल में कोहिनूर का नाम श्यामंतक था।

           कोहिनूर के बारे में ये मान्यता है कि वह कृष्णा नदी के पास किनारे कोल्लुर या गोलकोंडा की खदान से निकला था। यह खदान आज के आंध्रप्रदेश में स्थित है। साल 1850 में इसके बारे में चर्चा करते हुए इस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टरों ने ये नोट किया कि लोग मानते थे कि यह हीरा कोई 5000 साल पहले महाभारत काल में मिला था। तो इस हीरे का इतिहास बहुत ही पूराना है। लगभग 5000 वर्ष पहले संस्कृत भाषा में इस हीरे का उल्लेख किया गया था। तब इस का नाम अलग था। इसे श्यामंतक के नाम से जाना जाता था। लेकिन आज कई लोग इसे श्यामंतक हीरे से अलग मानते हैं।

           सबसे पहले 1304 में मालवा के राजा कि निगरानी में सबसे प्राचीनतम हीरा था। फिर साल 1339 में इस हीरे को समरकंद के नगर में लगभग 300 साल तक रखा गया। और उस समय के हिंदी साहित्य में हीरे को लेकर एक कथन प्रचलित था । जिस के अनुसार जो भी पुरुष इसे हीरे को पहनेंगा उसे श्राप लगेगा और वह कि दुखों से घिर जाएगा। इसे सिर्फ कोई औरत या फिर कोई पवित्र पुरुष ही पहेन सकता है। जो इस के सभी दोषों से दूर रहें पाएंगे। फिर यहा से कोहिनूर कि मुग़ल शासकों के अधिन रहा।


Story of Alauddin Khilji
Alauddin khiljK

कोहिनूर हीरा  कुछ समय तक अलाउद्दीन खिलजी के पास भी रहा था।

           14 वीं सताब्दि में दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी के पहुंच में रहा। उस के बाद इस हीरे का जिक्र बाबर की आत्म कथा “बाबर नामा” में मिलता है। साल 1526 में मुग़ल शासक बाबर ने “बाबर नामा” मैं  का हीरे उल्लेख करते बताया कि पानीपत की लड़ाई में सुल्तान इब्राहिम लोदी को हराकर आगरा की सारी दोलत हुमायूं ने अपने कब्जे में ले ली। हुमायूं बाबर का बेटा था। तो यहां पर इस जीत की वजह से हुमायूं को ग्वालियर के राजा ने एक बहुत बड़ा हीरा दिया और हुमायूं ने उस हीरे को अपने पिता को भेंट कर दिया। जब हुमायूं ने इस कि किंमत आंकनी चाहि, तो बाबर ने उसे कहा कि इतने बेशकीमती हीरे की कीमत एक लठ्ठ होती है। जिस हाथ में भारी लठ्ठ होगा, उस के हाथ में ये किमती हीरा होगा। और ये सबसे बेशकीमती हीरा है, जिस कि कीमत पुरी दुनिया की एक दिन की आय के आधे मूल्य के बराबर रहेगा। ये हीरा कई सालों तक बाबर के वंशजों के पास रहा।


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Aurangzeb

औरंगजेब और हुमायूं ने कोहिनूर हीरे को अपने वंशज महमूद को सोपा ।

           औरंगजेब और हुमायूं ने राज्य के इस अमूल्य हीरे की शोगध की सुरक्षा करते हुए अपने वंशज महमूद को सोप दिया। महमूद औरंगजेब का पोता था। उसके बाद 17वीं सताब्दि में बाबर के परपोते शाहजहां ने अपने लिए एक विशेष सिंहासन बनवाया इस, सिंहासन को बनाने में शैयद गिलानी नाम के शिल्पकार और उसके कारीगरों को क़रीब 7 साल का समय लगा। इस सिंहासन में कई किलो सोना मढ़ा गया और जवाहरातों को सजाया गया और हीरे को भी इस में मढ़ दिया गया। तब इस सिंहासन का नाम तख्त-ए-मुरस्स थाा, बाद में ये मयूर सिंहासन के नाम से जाना गया। दुनिया भर के जोहरी इस सिंहासन को देखने आते थे, इनमें से एक जोहरी था वेनीस शहर का होर्टेन्सो बोर्जिया, तो बादशाह ने हीरे की चमक बढ़ाने के लिए इसे बोर्जिया को दिया। और बोर्जिया ने हीरे का ज्यादातर हिस्सा कांट दिया, बोर्जिया ने इतने फूवडपन से काम किया कि उसने हीरे के टुकड़े-टूकडे़ कर दिए। बोर्जिया के कांट ने से पहले ये हीरा 793 केरट का था, जो बाद में 186 केरट तक रह गया। इसी लिए उन दिनों बादशाह ने बोर्जिया से 10,000 रुपए जुर्माना लिया था।


पर्शिया के राजा नादिर शाह।

           इस के बाद सन्  1739 में पर्सिया का राजा नादिर शाह भारत आया। और नादिर शाह ने मुग़ल बादशाह को हरा दिया, और मुग़ल सल्तनत की धरोहर को अपने अधिन कर लिया। तब तक इस हीरे का नाम “बाबर का हीरा” था, लेकिन नादिर शाह ने इस हीरे का नाम बदलकर “कोह-ए-नूर” यानी कोहिनूर कर रखा, जिस का मतलब प्रकाश या रोशनी का पर्वत होता है। लेकिन कोहिनूर को देखने के लिए नादिर शाह लंबे समय तक जिवीत नहीं रह पाया। साल 1745 में राजनीतिक लड़ाई के चलते नादिर शाह कि हत्या कर दी गई, और इस बेशकीमती कोहिनूर को जनरल अहमद शाह दुर्रानी  ने अपने कब्जे में ले लिया, और अहमद शाह दुर्रानी ने इस हीरे को अपने हाथ के कड़े में जडवाकर कई दिनों तक पहने रहा।


महाराजा रणजीत सिंह कोहिनूर को वापस भारत लाए।

           इस के बाद कोहिनूर वापस भारत आया, पर भारत कैसे आया इसके लिए अलग-अलग मतभेद हैं। जैसे कुछ लोग कहते हैं कि जब अहमद शाह दुर्रानी का बेटा शाह सुन्जा शिखों की हिरासत में लाहोर जेल में था तब शिख महाराज रणजीत सिंह ने दुर्रानी के परिवार को तब तक भूखा-प्यासा रखा जब तक कि दुर्रानी ने कोहिनूर हीरा रणजीत सिंह के हवाले नहीं किया। और कुछ लोग कहते हैं कि दुर्रानी का बेटा शाह सुन्जा कोहिनूर को साल 1813 में वापस भारत लेकर आया, और कोहिनूर को राजा रणजीत सिंह को सोप दिया, और इस बेशकीमती तौफे के बदले में राजा रणजीत सिंह ने शाह सुन्दरता को अफगानिस्तान से लडने और उसकी राजगादी वापस लाने में मदद कि थी। तो ये दो अलग-अलग मतभेद हैं कि दुर्रानी से कोहिनूर वापस कैसे आया। लेकिन जो भी हो कोहिनूर वापस राजा रणजीत सिंह के पास आ गया था। और राजा रणजीत सिंह ने अपनी वसियत में कोहिनूर हीरे को ओडिशा के जग्गन्नाथ पूरी मंदिर में देने का एलान किया था।


महाराजा रणजीत सिंह ने कोहिनूर हीरे को लाहोर की संधि के बदले ईस्ट इंडिया कंपनी को सोपा।

           कोहिनुर हीरा भारत में राजा रणजीत सिंह कि निगरानी में कइ दिनों तक सुरक्षित रहा, लेकिन साल 1849 में द्वितिय विश्व युद्ध में अंग्रेजो की जीत हुई, और अंग्रेजो ने शिख्ख शासक रणजीत सिंह कि सारी संपत्ति को अपने कब्जे में ले लिया। इस के बाद बेशकीमती कोहिनूर को ब्रिटिश इस्ट इंडिया कंपनी ने उस के खजाने में रख लिया, और बाकी शिख्ख संपत्ति को लड़ाई के मुआवजे के तौर पर लिया गया। और इस के बाद गुलाम भारत का वाइस रोय डेलहाउसि इसे अपनी आस्तिन में सिलवाकर लंदन लें गया। वहां उसने कोहिनूर हीरा इस्ट इंडिया कंपनी के डायरेक्टर को भेंट में दे दिया। कंपनी के डायरेक्टरों ने तय किया कि यह हीरा अमूल्य है इसका कंपनी के लिए कोई इस्तेमाल नहीं हैं तो बेहतर यही है कि इसे रानी विक्टोरिया को भेंट देकर उससे कुछ हासिल कर लिया जाए, और हीरा रानी विक्टोरिया को भेंट में दिया गया


महारानी विक्टोरिया ने कोहिनूर को फिर से 2000 नए हीरो के साथ अपने ताज में झड़वा दिया

            महारानी विक्टोरिया के अधिन इस कोहिनूर को क्रिस्टल पेलेस में प्रर्दशन के लिए रखा गया। इस समय इसका वजन 186 केरेट था। लेकिन यह प्रकाश का पर्वत उस समय उतना प्रभावि और जगमगाता हुआ नहीं था। महारानी विक्टोरिया के पति प्रिन्स आलबर्ट हीरे की चमक देखकर निराश हुए, इसी लिए महारानी विक्टोरिया ने इसे फिर से नया स्वरुप देने का निश्चय किया। साल 1852 में इसे डच के जोहरी केंटर को दिया गया। जिसने इसे कांटकर 105.6 केरेट का कर दिया। इसे कांटकर ओवल शेप में बनाया गया। उसके बाद रानी विक्टोरिया ने इसे अपने ताज में लगभग छोटे छोटे-छोटे 2000 हीरों के साथ जडवा दिया, और ये वही समय था जब ताज के हाथ में दुनिया कि सबसे ज्यादा ताकत थी। यानी उन दिनों अंग्रेजो का लगभग पूरी दुनिया पर शासन था और जैसा बाबर ने कहा था, कि यह हीरा उसी का होगा जिसके हाथ में सबसे बड़ा लठ्ठ हों।


महारानी विक्टोरिया कोहिनूर को सिर्फ कुछ खास मौके पर ही पहनती थी।

           महारानी विक्टोरिया इसे किसी खास मौके पर ही पहनती थी। उन्होंने अपनी वसियत में कोहिनूर के उत्तराधिकारी के बारे में लिखा है, की कोहिनूर को केवल महारानियों द्वारा ही पहेना जाना चाहिए, किसी समय कोई पुरुष राज्य का शासक बनता है तो उसकी पत्नी को कोहिनूर पहनने का अधिकार होगा।

          इसे महारानी विक्टोरिया के बाद, महारानी एलेक्सजेंडर, उसके बाद महारानी मेरी तथा महारानी एलिजाबेथ द्वारा पहना गया था। और आज कोहिनूर कइ देशों का सफर करते हुए, कइ राजा-महाराजाओं के हाथों से होतें हुए, आखिर में लंदन के टावर में सुरक्षित रखा गया है।

           अब बात करेंगे उन झगड़ों कि जो कि कोहिनूर हीरे को लेकर हैं। आज कोहिनूर पर कई देश अपना हक बताते हैं। भारत की आज़ादी के बाद से ही भारत ने कोहिनूर को वापस लाने की कवायत शुरू कर दी थी। साल 1953 में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के राजतिलक के दौरान भी, भारत द्वारा कोहिनूर की मांग की गई थी। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने दलील को खारिज कर दिया था। कोहिनूर पर हक़ के लिए भारत के साथ-साथ पाकिस्तान भी सामिल है। साल 1974 में पाकिस्तान ने कोहिनूर पर अपना हक बताते हुए ब्रिटिश सरकार से कोहिनूर को लोटा ने कि बात की थी। इस के जवाब में ब्रिटिश प्रधानमंत्री जेम्स केलेघन ने तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को खत लिखा के कोहिनूर को साल 1849 में लाहोर की शांति संधि के तहत महाराजा रणजीत सिंह ने ब्रिटिश सरकार को दिया था। इसी लिए ब्रिटिश महारानी कोहिनूर को पाकिस्तान को नहीं सोप सकतीं। इस के अलावा तालिबान के विदेशी मुद्दो के प्रवक्ता फै़ज़ अहमद फ़ैज़ ने कहा कि कोहिनूर अफगानिस्तान की संपत्ति है और इसे जल्द से जल्द अफगानिस्तान को सोपा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि इतिहास बताता है कि कोहिनूर अफगानिस्तान से भारत गया, और फिर भारत से ब्रिटेन, इसी लिए अफगानिस्तान कोहिनूर का प्रबल दावेदार है। इस के जवाब में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने कहा “अगर ब्रिटिश सरकार प्रत्येक देश के दावे को सही मानते हुए अमूल्य रत्न एवं वस्तूए लौटाने लगीं, तो कुछ ही समय में ब्रिटिश महासंग्राहलय अमूल्य धरोहरों से ख़ाली हो जाएगा। बाद में फरवरी 2013 में भारतीय दौरे पर उन्होंने कोहिनूर को लोटां ने से साफ इंकार कर दिया था।

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